सवाल खाप का

हमें यहाँ (भारत मैं) एक ऐसा वर्ग खड़ा करने में वह सब करना चाहिए जिसे कर सकते हों, जो हमारे और उन करोड़ो लोगों के बीच दुभाषिया का काम करेंगे जिन पर हम राज करते हैं, एक ऐसे व्यक्तियों का वर्ग जो खून व रंग से भारतीय हो लेकिन रूचि, नैतिकता, अस्मित अथवा विचार और बुद्धि से अंग्रेज हों.                                                                                                    —-   लार्ड मैकॉले

(भारत में ब्रिटिश गवर्नर-जनरल की परिषद् में विधि सदस्य)

अगर हम मैकॉले की इस बात को सामान्य मान लेने कि गलती यदि हम न करें तो इसके गम्भीर तात्पर्य को समझने में लापरवाही नहीं होगी. अपने शासन को पूरी ताकत के सहारे लगभग 150  साल तक इस निति पर उन्होंने तन-मन से काम किया और इसका प्रभाव आज़ादी के बाद भी लगभग 70 सालों तक उसी तहजीब के शिकार भारतवासियों के व्यवहार-आचरण में हर घडी देखने को मिलता है, विशेषकर पढ़े-लिखे तबके में यह बात ज्यादा सही ठहरती है. इस तबके को गुमान हो गया है कि वह समझ का धनी है. खाप के प्रश्न पर ग्रामीण भारत की जीवनशैली पर ताजा आपेक्षों में बरती जा रही सोच व शब्दावली में ब्रिटिश शासन के हाथ हुई हानि का सहज अनुमान लगाया जा सकता है?

इस साईट (खापलैंड.इन) का लक्ष्य सिर्फ खाप के इतिहास का वर्णन करना ही नहीं है. इतिहास से सबक लेने का लक्ष्य निरंतर है, रहना चाहिए ताकि गलतियों को दोहराने से बचा जा सके. इस संदर्भ में, खाप के इतिहास की प्रमुख बातों को मध्यनजर रख कर ही साइट पर संवाद करने कि कोशिश करेंगे. यह लाइनें लिखने में मुझे जिनका आशीर्वाद व सहयोग मिला चौधरी ज्ञान सिंह और श्री फूल कुमार मलिक इस प्रयास को खाप प्रथा के विरुद्ध अनर्गल उस प्रचार ने उकसाया है जिसे देश में टेलीविजन व अख़बारी जगत ने एक समय से चलाया हुआ है और जिसका छिपा लक्ष्य अत्यंत खतरनाक साबित हो सकता है. कुछ अख़बारों ने तो सीमा ही लाँघ दी, जब वे खाप के विरुद्ध अपने अभियान में स्वार्थी राजनितिक दलों के अनकहे प्रवक्ता बन गए और जवाब में दिए गए जवाब पर चुपी साध गए. खाप के बारे में अज्ञान उन लोगो में भी कम नहीं है जो इसके हिमायती है. देखने में आ रहा है कि ग्रामीण समाज में खाप यानि भाईचारे के महत्व कि समझ लंगड़ी है जिससे मामले को उलझाने का प्रयास हो रहा है. क्या समाज का भला व्यवस्थित ढंग से रहने में है या मनमाने चलन कि बेपरवाह छूट हो ? सच तो यह है कि सात्विक आचरण से ही दूसरों के अधिकार क्षेत्र का सम्मान बच सकेगा. किन्तु जब समाज में गलत व सही तथा व्यभिचार कि परिभाषा बदलने पर उतारू हो जाये तो इससे समाज का संतुलन बिगड़ेगा ही.

आज का आधुनिक भटका हुआ युवा लड़के-लड़कियों के विरुद्ध जनमत तैयार करने का दायित्व छोड़ कर जब कोई प्रबुद्धजन या कोई सरकार ऐसे आचरण को संरक्षण देने पर उतरे तो मंशा पर प्रश्न खड़ा होता है. यूँ तो ऐसी हरकते अपराध की श्रेणी में आती हैं. इसके लिए बहुत पहले से ही थाने में प्राथमिकी दर्ज होती आई है. इस अपराध से बच निकलने के कानून में दर्ज चोर दरवाजे का लाभ लेकर अदालत अथवा मंदिर, गुरूद्वारे या मस्जिद में बिन परख शादी कि मंजूरी के प्रमाणपत्र कि चालाकी ने कानून की दोहरी प्रणाली के समाज विरोधी चेहरे को बेनकाब किया है, किन्तु किन्ही छिपे हितों की खातिर अपनी इस कमजोरी को ये लोग स्वीकार करने की बजाय घर -परिवार व उसके समाज को ही अपराधी साबित करने पर उतारू हैं. नहीं लगता कि विभिन्न स्तर पर सरकारें नाकारा  हैं. अपने इरादों  को हासिल करने मैं ये सदा सक्रिय व चौकस रहती हैं. खाप के प्रश्न पर भी  बेहद चुस्त साबित हुई. ऐसे लड़के-लड़कियों को प्रेमी युगल बता कर उनको निजी स्वतंत्रता कि अजब-गजब व्याख्या मैं अखबारी जगत व टेलीविजन व्यवसाय के जरिये जिस चुस्ती से काम हो रहा है वह देखते  ही बनता है. ऐसे बिगड़ैल युवक-युवतियों कि स्वतत्रता यदि पवित्र है तो घर-परिवार व बिरादरी की स्वतत्रता के प्रश्न से ऑंखें बंद करने का अर्थ अराजकता की वकालत ही ठहरती है. कौन माँ-बाप है जो अपने सुपुत्र, सुपुत्रियों को बेमतलब अथवा साधारण गलतियों पर प्रताड़ित करना चाहेंगे?   परिपक़्व अवस्था पाते ही युवक, युवतियां के सदियों-दर-सदियों से विवाह होते आये हैं, अब भी होते हैं. अपने समाज से इन्हे समय पर आशीर्वाद मिलता ही है. यौन सम्बन्ध की महता को परिजन समझते हैं और उपयुक्त अवस्था मैं पहुँचते ही इनके विवाह के प्रबंध मैं जुटते हैं. किन्तु बिगड़ैल प्रेमी युगलों की हिमायत का मामला दूसरी तरह का है. तब, यौनाचार मैं लिप्त लफंगो सामाजिक दृस्टि से पथभ्र्ष्ट आचरण या अपने अधिकार मैं गुमान में पुरे समाज को ठेंगा दिखाने पर तुले तत्वों को बढ़ावा देने से कौन स्वस्थ समाज की रचना होने का ये ताकतें रास्ता खोल रही हैं, नहीं मालूम.

ऐसे तत्वों को आश्रय देने में व्यस्त विभिन्न तरह के लोगों द्वारा अब ग्रामीण घर-परिवार व गांव समाज को अपराधी बताने के लिए इनकी वक्त जरूरत की छतरी यानि खाप प्रणाली  को तालिबान, गवारुं, सामंती, रूढ़िग्रस्त, पिछड़ेपन आदि की संज्ञा से नवाजा जा रहा है ताकि इन पर पागलपन का तगमा लटका कर दफ़नाने की हसरत पूरी की जा सकें. पूछना होगा कि इस खाप प्रणाली ऐसा क्या मिल गया है जिस कारण इसे खत्म करना इतना आवश्यक माना जाने लगा है

कुछ समय से खाप के प्रश्न पर देहाती जीवन शैली के विरुद्ध नफरती अभियान शिखर पर है. मामला झूठी शान कि खातिर हत्याओं का बनाया गया है, शान को कौन तय करेगा कि यह झूठी है या सही ? प्रश्न पर ईमानदार चर्चा नहीं है बल्कि एक तरफा आरोपों कि झड़ी लगी हुई है और इसके खिलाफ अनजान आबादी मैं नफरत फ़ैलाने का ताबड़तोड़ प्रयास हो रहा है. याद नहीं आता कि स्वतंत्र भारत के 65 साल मैं पहले कभी एक जाती विशेष की जीवन शैली को संविधान व कानून का हवाला दे कर इस तरह के अनर्गल प्रचार अभियान मैं देश का अख़बार व टेलीविजन यूँ जुटा हो.

अभियान की मंशा इससे गहरी है. यहाँतो पर्दे की आड़ मैं शिकार खेला जा रहा है. यदि इस प्रश्न पर स्वस्थ चर्चा होती तो सम्भवत फूल कुमार जैसे जुनूनी को शायद खापलैंड.इन व इतनी माथा पचि नहीं करनी पड़ती. स्वस्थ चर्चा मैं अख़बार व टेलीविजन पर दोनों पक्ष की सुनने व बहस का होंसला रहता तब बात अलग होती. वह गायब है , केवल नामचारे के लिए कुछेक अधकचरे तत्वों को लेकर ‘विपक्षी’ बात एकांगी जिक्र करके नफरती अभियान चलाने की चालाकी बरती जा रही है.

यह भी साफ़ है कि राजनीति में अपनी तलाश में भटकते ऐसे तत्व जो अब खाप के सवाल को अपने सीढ़ी बनाने हेतु मैदान में कूद पड़े हैं, हमले कि गंभीरता से अपरिचित हैं व सतही पहलुऒं पर चर्चा में उलझे खड़े हैं. इससे अनंतत समाज के हितों पर चोट लगने कि सम्भवना बन गई है. फिर, बात मात्र खाप कि नहीं लगती निशाना ग्रामीण भारत कि जीवनशैली और उसके केंद्र मैं घर-परिवार कि व्यवस्ता है और निशाना देहाती समाज का पूरा ताना-बाना है. बता दें कि पहले ही ग्रामीण भारत क्षेत्र  की जिंदगी की धुरी यानि परिवार श्रम पर टिकी खेती और उसके चारों और दूसरे सहायक पेशों को खतम करके पूंजी की ‘ताकत’ पर चलने वाले आर्थिक ढांचे को सौपने पर एक समय से काम चालू है. जहाँ तक यह काम आगे बढ़ चुका है, उससे आगे चलने के लिए  ग्रामीण जीवन पद्धति को बदलना ये लोग आवश्यक मान कर इस अभियान को चला रहे हैं. खतरा इस जगह है. यह हमारा ख्याली पुलाव नहीं है और न कोरा भगवत अनुमान है, बल्कि हालत के ठोस जायजे का निचोड़ है जिस पर चर्चा का हमारा खापलैंड.इन  मैं विचार हैं ताकि मनघडंत कहानी का आरोप न लगे.

यह दावा नहीं है की ग्रामीण भारत की वर्तमान जीवनशैली मैं सब कुछ तर्कसंगत है और न अपने ज्ञान का किसी तरह गुमान सता रहा है कि खाप के प्रश्न पर नगरीय सभ्यता के प्रवक्ताओं को हर हालत मैं गलत साबित करने का एकमात्र मकसद लेकर चलने से किस तरह कि संतुष्टि मिलती है. इसके लिए यह बहस छेड़ने का इरादा नहीं है. न लोगों को बेमतलब बरगलाने कि राजनीति हमारा पेशा है. बात गंभीर है.यह केवल आमजन कि समझदारी को झकझोरने की है ताकि खतरे से सचेत रह सकें.

खाप के प्रश्न पर खापलैंड.इन की आवश्यकता अनेक कारण से अपरिहार्य हो गई है. इससे  पहले खाप पर अनेक शोध या पंडिताऊ किस्म के प्रकाशन हैं. यह सब दोहराने का यहाँ प्रयास नहीं है हालाँकि इन प्रकाशनों का एकांगीपन खलता है. इस ताज़ा प्रयास का सबसे अहम् कारण खाप की समझ मैं गढमढ व गंधला करने की कुचेष्टा को चुनौती स्वरूप जवाब देना है. एक समय से स्पष्ट हो चला है की खाप को लेकर कुछ अपर्याप्त समझ के आम माहौल का लाभ लेकर इसके प्रति नफरत का भाव उत्पन्न करने का देशव्यापी भरापूरा प्रचार जारी है ताकि इसके प्रति एक सुनियोजित पूर्वाग्रह खड़ा हो.

इस अभियान को चलाने वाले लोगों की बदनीयती का प्रश्न गौण है. मामला इससे कहीं गंभीर प्रकृति का है. प्रश्न योजनागत अभियान की मंशा का है जो कहीं अधिक खतरनाक है. इस बदनीयत अभियान से पर्दा उठना ही चाहिए. योजना की बात मामले को अधिक गंभीर बनाती है. इस अथक प्रयास के अपरिहार्य होने का यही प्रमुख कारण है. ध्यान रहे की उक्त प्रचार का असल निशाना कहीं अधिक व्यापक है. खाप पंचायतें इस अभियान मैं एक सशक्त रोड़ा है, लक्ष्य देहात की पूरी परम्परागत कृषि प्रणाली को तोड़ने और यहाँ के घर-परिवार के ताने-बाने को बिखराना है ताकि ग्रामीण अर्थव्यवस्था को पलट कर पूंजीवादियों के हाथ मैं सौंपना आसान हो और देहाती नौजवान लड़के लड़कियों को अभियान के मुखियों  की सेवा मैं जोतना निष्कंटक हो सके.इसी के लिए हाथ पैर मारे जा रहे हैं. खाप चूँकि ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर टिकी उसकी जीवनशैली व संस्कृति की ढाल हैं.इसलिए पहले ये खाप निशाना बनी हैं यह ढाल न हो तो असहाय परिवार अपने आप बिखरेगा. इन्हे रास्ते से हटाने मैं बहुत सीमा तक खापों के स्वयंभू चौधरीयों की नासमझी ने, जाने-अनजाने, बड़ी मदद की है. खाप व्यवस्था के मौलिक चरित्र पर नासमझी ने मामले को जटिल बनाने का काम किया है. और उसके बारे मैं गलतफ़हमियों का बाजार गर्म है.खापलैंड.इन का मुख्य उद्देश्य है कि खाप प्रणाली के बारे मैं नौजवानों को तो सिर्फ बताना है दुर्भाग्य यह कि कुछ स्वयंभू चौधरीयों को समझाना भी है.

याद रहे कि शहरीकरण रोडरोलर के निचे गावों कि पीसी हड्डियां के चूरे से जो कुछ हासिल होगा वह सेठिया तबके के लिए जिस स्वर्ग कि सीढ़ी बनने जा रहा है उससे आज कि ग्रामीण आबादी के लिए बर्बादी के अलावा कुछ हाथ लगने वाला नहीं है. मृगतृष्णा के छलावे कि बात अलग है. यह बात नहीं है कि हम देहात के प्रति किसी अंधे मोह अथवा किसी रागात्मक भावुकतावश यह बात कह रहे हैं, बल्कि ठोस परिस्थितियों का ठोस मूल्यांकन यह सब कहने को मजबूर कर रहा है. एक अन्य  पक्ष भी महत्व का है खाप के प्रश्न पर जितने शोध व प्रकाशन हुए है वे अधिकतर किसी न किसी पूर्व निर्धारित लक्ष्य को सही साबित करने के लिए लिखे गए हैं. उनमें लेखकों कि अपनी अनेक वैचारिक कमजोरियां  झलकती हैं. इनमें एक इनकी दृष्टि है जो   पराई  शिक्षा कि देन है. इनमें ग्रामीण, किसानी से उपजे खाप के चारित्रिक लक्षणों को ठीक से छुआ तक नहीं गया है. ये लक्षण भारत कि वर्ण-व्यवस्था पर टिकी  सनातनी हिन्दू संस्कृति से इन्हे अलग करते हैं हुए खापों के लोकतान्त्रिक चरित्र व कार्यप्रणाली के उभरने का सब से निर्णायक कारण रहा है. इसका कम नोटिस लिया गया है. यह होता तो खाप कि उपयोगिता पर गलतफहमी खड़ी करना इतना आसान होता जितना ताजा अभियान मैं देखने को मिला है.

इस मिशन का यह कारण भी है कि मौजूदा खाप तोड़ो अभियान के इरादों को सही से रेखांकित करने मैं गलती हुई है. इसमें एक एकांगीपन है.प्रचार अभियान का आयाम जितना अब तक समझा गया है वह उससे कही व्यापक है. इस बारे मैं अधिकतर स्वयं खाप समर्थकों कि वैचारिक अपंगता इस अक्षमता का एक बड़ा कारण है. सांकेतिक दृष्टि से यहाँ एक प्रश्न पूछा जा सकता है कि अंग्रेजों को यहाँ से विदा हो जाने के सत्तर  साल बाद देश मैं समलैंगिक यौन व विवाह प्रणाली कि जगह रैनबसेरों की जीवन पद्धति को कानूनी आधार देने और खाप को तोड़ने का अभियान संगठित करने मैं क्या कोई सीधा  सम्बन्ध है अथवा यह मात्र सयोंग है की देश मैं यौन संबन्धों पर एक दम पश्चिमी दृष्टि अपनाई जा रही है, जिस की राह में खाप व्यवस्था को एक शक्तिशाली रुकावट माना जा रहा है. भारत की सामाजिक बुणगत का यह एक पहलु है जिसे विचार में रखा जाना चाहिए कि आर्य समाज, सनातन हिंदू पंथ , सिख, जैन व मुस्लिम पंथ इस पश्चिमी जीवन शैली के हमले से सामने पूरी तरह नाकारा साबित हो रही है, जबकि खाप कि कबीलाई व्यवस्था इनसे कहीं अधिक सक्षम व प्रभावशाली है तथा पूरी तरह जनतांत्रिक व जाती, पंथ निरपेक्ष ग्रामीण जीवन शैली है

इस अभियान में लगा हुआ पूरा अखबारी  जगत जब खाप को जाट समुदाय से जोड़ता है तो उसकी नियत में खोट झलकता है. लगता है कि अन्य जातियों को खाप व्यवस्था के विरुद्ध खड़ा करने का प्रयास हो रहा है. ताकि ग्रामीण आबादी को बाँट कर अपने इस युद्ध को वे जीत  सकें. याद रखा जाना  चाहिए कि अखबारी जगत व टेलीविजन व्यवसाय का मामला पहले जैसा नहीं रह गया है, अब यह सेठिया जमात के हाथ का अपना औजार है जो पुरे ढाँचे को अपने कब्जे में रखने हेतु हर घडी बैचेन रहता है संविधान में बयान अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को अपने लिए समेत लिया है. मिडिया की स्वतंत्रता ऐसे कब्जे में चली गई है जिन्हे समाज से कोई लेना देना नहीं है.

यह कोई संयोग नहीं है की अब भारत के ग्रामीण क्षेत्र में दो विपरीत सस्कृतियों के बीच अनकहा गृह युद्ध छिड़ा हुआ है जिसमे दुश्मन पक्ष ने ग्रामीण परिवारों की पढ़ी-लिखी संतान को अपने पक्ष में फ़ांस लिया है और उनके कंधे पर बन्दुक रख कर यह युद्ध लड़ रहे हैं. इसमें जब खापों ने दखल दे कर संबंधित परिवारों को सहारा देना आरम्भ किया तभी से ये पद्धति शहरी चौधरीयों के हमले का निशाना बनी है प्रश्न की थोड़ी पृष्ट्भूमि को देख लें. ब्रिटिश शासन की यहाँ समाप्ति पर बीते सात दशक से निरंतर ग्रामीण भारत की दिशा व दशा बदलने की बात खुल कर हो रही है. किन्तु इस जुमले के सही अर्थ या मंशा से बेखबर देहाती आदमी ताली पीटता आया था की नारे में उनके भले की बात हो रही है. लगभग 50 वर्ष तक गलतफहमी से भरी आस के बाद जब उल्ट दिशा का अहसास होने लगा और ‘गांव बिकाऊ’ होने का एलान हुआ व लाखों किसानों द्वारा आत्म हत्याओं की ख़बरों से माहौल भर गया तब जा कर सपना टूटा कि मामला कहीं दूसरा है और बेहद खतरनाक भी. दो दशक से कम ही कहा जाता है कि ग्रामीण भारत कि दिशा व दशा बदलनी है. नारा बदला है. लक्ष्य पलट गया है. एलान है कि ग्रामीण व्यवस्था को  औद्योगिक/व्यवसायिक जरूरतों के हिसाब से सेठ चलाएंगे, जल, जंगल , खदान व जमीन पर देहात मोह त्याग दें. अब इसी के अनुरूप ग्रामीण तहजीब का नया रंगरूप देने हेतु खुल कर कहा जाने लगा है कि देहात को अपनी दकियानूसी सोच छोड़ कर शहरी सभ्यता ओढ़नी पड़ेगी तब कहीं रोटी का जुगाड़ बैठेगा! स्वतंत्र पेशे एवं स्वाभिमानी सोच के सपने को भूल जाने की भरी पूरी नसीहत है! यही नहीं, अंग्रेजों की गुलामी से पीछा छुड़ाने वाले स्वतत्रता आंदोलन में उठे सवालों को पलटा जा रहा है. उस समय किसी ने नहीं कहा था आज़ादी का मतलब यहाँ की युवा पीढ़ी को रोटी के लिए फिर से देशी अंग्रेजों का पालना हिलना पड़ेगा. जैसा शहरीकरण के नारे का अर्थ बन गया है. यहाँ पर एक महान शख्सियत जिनके जिक्र के बिना ऐसे विचार गौण हो जाते हैं, बहुत याद आई वो हैं  दीनबंधु चौधरी छोटू राम आगे हम इनके विचरों से प्रेरणा जरूर लेंगे.

इसका नक्शा तैयार करने के मिडिया के साथ-साथ कुछ पश्चिमी कंपनियों का भी सहारा लिया जा रहा है. फिर कहना पड़ेगा कि उत्तर भारत में इनके मंसूबों को  भाप चुकी सबसे बड़ी व सशक्त रुकावट है खाप प्रणाली. लगभग सभी राजनितिक दल व उनके नेता लोग इस चित्र से अभिभूत हैं! ग्रामीण सभ्यता से यह नरकीय शैली कोई बेहतर विकल्प हों तो तब तो किसी को भी अपनी दिशा बदलने  में भला परहेज कैसे हों सकता है, ग्रामीण भारत को भी नहीं हों सकता. किन्तु बात बेहतर होने के ठोस प्रमाण के है. कैसे माना जाये कि शहरियों के इरादे नेक हैं और उनकी चमचमाती तहजीब में जिंदगी को सकून मिलेगा, आपसदारी बची रहेगी और रोटी के लिए किसी धनवान कि सेवा करना आदमी-औरत की मजबूरी नहीं बनेगी. इंसान का सम्मान उन्हें मिलेगा? लेकिन शहरी सभ्यता में ऐसा कुछ सीधा उपलब्ध होने की कोई उम्मीद नहीं है.

सदेंह आधारहीन नहीं है. देहाती आबादी पहले ही सत्तर साल में बहुत धोखा खा चुकी है. उसके स्वस्थ लक्षणों को तोडा गया है. ग्रामीण भारत कोई बेवकूफ लोगों के जमावड़ा तो है नहीं कि अपने भले बुरे में तमीज करना नहीं जानते हों और यूँ ही यकीन कर ले कि नगरीय सभ्यता इतनी सीधी साधी हों और दयालु हों. चार सौ साल के विश्वव्यापी  इतिहास बताता है कि नागरित सभ्यता लुटेरी सभ्यता है, इंसान के खून व पसीने पर मौज करने वाली अमर बेल है. देखना यह है कि किस आधार पर, कौन तय करेगा और कैसे तय करेगा कि नगरीय सभ्यता के सच क्या है और वह ग्रामीण भारत को सही में एक बेहतर जीवन कि राह खोलने कि क्षमता रखती है या नहीं? अभी तो यह निर्णय स्वयं शहरी सभ्यता के व्यापारी ही कर रहे हैं कि उनका माल सबसे बेहतर है, उधार के ज्ञानशास्त्र की शह पर एक पराक्रम है. तमाशा यह है कि माल भी नकली, दाम भी मनमाने और गुणगान भी अपनी तर्ज पर. देहाती भारत सीधा-साधा है किन्तु इसका अर्थ यह नहीं लगाना चाहिए कि वो बेवकूफ है अथवा चालाकी को परखने की क्षमता को खो बैठा है.जिंदगी के अनुभव और आपसी आदान प्रदान से सिखने के उनका अपना ही अंदाज है. बीते सत्तर साल के अनुभव उनके सामने है. इसलिए उनके साथ बरती गई चालाकी से वे बेजार हुए हैं. अब उनमें बेचैनी है.

खाप प्रणाली पर अपेक्षों की बेबाक मीमांसा होनी चाहिए. इसके लिए स्थिति समझ लेनी  होगी. स्थिति का पहला पक्ष है की आपेक्ष लगाने वाले लोग कुछ बेतुके मिथक खड़ा करके अपना अभियान चला रहे हैं. कुछ बातों को, कुछ बेतुके लांछनों को ये लोग सच मान कर चले हैं उन पर मीमांसा से बच कर बात हो रही है, सहूलियत के अनुसार आये दिन तर्क बदल रहे हैं. बहस का ये बेतुका आधार है. स्पष्ट लगता हैं कि इनका खास व सधा-सधाया मकसद है. इसे स्पष्ट नहीं कर रहे. लुकाछिपी का खेल है. इसलिए मीमांसा मैं थोड़े विस्तार कि आवश्यकता है.

परिवार, गांव व खाप प्रणाली का सामाजिक  ढांचा बहुत पुराना है  किन्तु अति पुराना होने से ही किसी व्यवस्था, विचार या वस्तु के हिमायती होने का तर्क जहाँ असंगत है,जिस तरह हर पुराणी व्यवस्था, चीज अथवा विचार को केवल उसकी उमर के हिसाब से त्याग देना भी बेतुका है. बुनियादी प्रश्न इसकी सामाजिकता उपयोगिता का है.आज के खंडित समाज मैं लोगों को जो सहारा व सुरक्षा  खाप व्यवस्था दे सकती है और बिरादरियों की गोत्र-पंचायतें विवाद को निपटाने की व्यवस्था सुलभ करा सकती है अन्य कोई नहीं. इसकी खूबी है की यह लोगो को अपने पैरों पर खड़ा होना सिखाती है और इससे स्वावलम्बन को बढ़ावा मिलता है. इनके बिना सत्तर प्रतिशत आबादी का देहाती भारत रास्ता भटक रहा है. यह मनुष्य का नैसर्गिक हक़ है की वह अपने जीवन को स्वयं संचालित कर सके. उस दृष्टि से खाप व्यवस्था पर एतराज अमान्य है.

——    सुरेश देशवाल                                            

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