औरत का पुनर्विवाह व् विधवाविवाह का अधिकार: भारत के ऐसे कोनों से आने वाले लोग जहां विधवा औरत को पुनर्विवाह की इजाजत की बजाय विधवा को उसके पति की सम्पत्ति से बेदखल कर विधवा-आश्रम में भेजने की मान्यता रही है उनके लिए यह तथ्य नया भी हो सकता है और उनमें से बहुतों के लिए शायद अचम्भित कर देने वाला भी कि खापलैंड पर खापों ने आदिकाल से इस मान्यता को सिरे से ख़ारिज किया है|

खापलैंड (हरियाणा) यौद्धेयों के यहां औरत को युगान्तरकाल से पुनर्विवाह व् विधवाविवाह दोनों की स्वेच्छा से अनुमति रही है। पुनर्विवाह पहले पति से तलाक हो जाने की परिस्थिति में होता है व् विधवा विवाह औरत के विधवा होने जाने की परिस्थिति में। इस मामले में खाप का आदर्श सिद्धांत कहता है कि दोनों ही सूरतों में मजबूरी, बाध्यता अथवा विवशता की बजाये औरत को उसकी सहमति सहित पुनर्विवाह व् विधवा विवाह दोनों अधिकार रहे हैं| इसलिए यह यौद्धेयों की संस्कृति व् मानवता के स्वर्णिम स्तम्भों में से एक महत्वपूर्ण स्तम्भ रहा है

|इस मामले में औरत की स्वेच्छा के पहलु बारे मुझे मेरे ही घर-परिवार में उदहारण मिलते हैं| जैसे मेरी एक चाची जी जब विधवा हुई तो उनको उनके छोटे देवर के साथ पुनर्विवाह का प्रस्ताव पेश हुआ| जिस पर उन्होंने यह कहते हुए इंकार कर दिया कि मेरे पहले पति से मुझे चार बेटियां हैं, और देवर उनकी जिम्मेदारी उठाने लायक नहीं, इसलिए मैं अपनी बेटियों को अकेले ही पाल-पोष के बड़ा करुँगी| आज उन चाची जी ने अपनी बेटियों को ना सिर्फ अच्छी से अच्छी शिक्षा दिलवाई अपितु चार में से तीन की तो शादी भी कर दी है|

ऐसे ही दूसरा उदाहरण है मेरी दूसरी चाची का| जो जब विधवा हुई तो उनको भी ऐसा ही प्रस्ताव मिला| जिस पर उनका और देवर का औलादों में सम्पत्ति कैसे बांटी जाये इस पर सहमति नहीं बनी तो चाची ने अपनी दोनों बेटियों के साथ अकेले रहने का निर्णय लिया| बाद में उन्होंने अपनी बहन के बेटे को गोद ले लिया|

लेकिन किसी भी सूरत में कोई सी भी औरत को समाज या परिवार ने उनके पतियों की सम्पत्ति से बेदखल कर किसी विधवा आश्रम में नहीं भेजा|

भारत देश में जहां एक तरफ ऐसे समाज हैं जो औरत को विधवा होने पर विधवा आश्रमों में भेजते हैं| गंगा नदी के घाटों पर बसने वाले शहरों में विधवा आश्रमों की सबसे अधिकता पाई जाती है| लेकिन यौद्धेयों की धरती ऐसी धरती है जिस पर वृन्दावन को छोड़कर कहीं भी कोई विधवा आश्रम नहीं मिलता| यौद्धेय मतानुसार यह जो एक मात्र विधवा आश्रम प्राचीन खापलैंड की धरती पर है इसको भी बंद करवा के इसमें रहने वाली विधवाओं को उनके पतियों की सम्पत्ति का मालिकाना हक़ दे के उनको उनके अधिकार वापिस दिलवा दिए जावें|

यौद्धेयों ने अपने यहां कभी भी देवदासी जैसी अमानवीय प्रथा को स्थान नहीं दिया: पूरे भारत में यौद्धेयों की धरती खापलैंड ही ऐसी धरती रहती आई है जहाँ इन्होनें देवदासी जैसी कुप्रथा को कभी पाँव नहीं पसारने दिए| एक तरफ जहां आज भी मध्य-पूर्वी व् दक्षिण भारत जैसे कि आँध्रप्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र में येल्लमा तो कहीं देवदासी नाम से दलित समुदायों की बेटियां देवदासियां मिलती हैं, वहीँ यौद्धेयों ने अपनी धरती पर किसी भी समुदाय की औरत के साथ इस स्तर का घिनौना कुकृत्य नहीं होने दिया अर्थात इस उत्पीड़न व् श्राप को पैर नहीं पकड़ने दिए| बल्कि ऐसा करने की कुचेष्टा करने वाले पाखंडियों और फंडियों के डेरे तक उखाड़ फेंकने की कीमत चुकाने का गौरवशाली इतिहास संजोये है खापलैंड|

केरल की देवदासियां तमिलनाडु में मातम्मा, बंगाल में नगरवधु, उड़ीसा में देबदासी, तो आंध्रा में येल्लमा कहलाती हैं। सरकारों के लाख दावों के बाद भी ये प्रथाएं बदस्तूर जारी हैं। मातम्मा प्रथा को बयाँ करती हुई, एक ऐसी ही डॉक्युमेंट्री, जो बताती है कि सरकार के प्रतिबंध के बावजूद यह प्रथा ज्यों-की-त्यों चल रही है| यहाँ दो दिन से ले के बारह-तेरह साल लड़की को मंदिरों में सेवा के लिए दान दे दिया जाता है और फिर वो ताउम्र एक वेश्या का जीवन जीती हैं, चाहे उनकी मर्जी हो या ना हो| Ref.1

खापों ने कभी भी सती-प्रथा को अपनी मंजूरी नहीं दी: यौद्धेयों की धरती ने कभी सतीप्रथा को पनाह नहीं दी| जहां मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ व् मध्य भारतीय राज्यों में आज भी इस प्रथा के होने की ख़बरें आती रहती हैं, वहीं खापलैंड की धरती के सूरवीर यौद्धेयों ने कभी अपनी औरतों को सति होने का समर्थन नहीं किया और यही कारण है कि यहां सति-प्रथा का प्रभाव भी नगण्य रहा| युद्धों में वीरगति पाने की परिस्थिति में यौद्धेयों की औरतें शाक्के और जौहर करने की अपेक्षा जंगे-मैदानों में युद्ध लड़ती थी| यौद्धेयों की योद्धेयायें हजारों की संख्या में सेना की टुकड़ियां बना, दुश्मनों के दांत खट्टे करके मरना और मारना ज्यादा पसंद करती थी| और खापलैंड के यौद्धेय हमेशा से अपनी औरतों व् मर्दों दोनों को ऐसी वीरतापूर्ण वीरगति को ज्यादा बेहतर मानते आये हैं बजाय कि पति की मौत के बाद उनके साथ चिता में बैठ या शक्का कर आत्महत्या करने के|

छत्तीस बिरादरी की औरत को समान वस्त्र पहहने की आज़ादी: जैसे कि खापलैंड पर एक गोत के खेड़े वाले (बहुगोतीय गाँवों में इसका अलग विधान है) गाँवों में छत्तीस बिरादरी की बेटी को अपनी बेटी मानने का आदर्श विधान है। इसी प्रकार लड़की-बेटी-बहु चाहे तथाकथित स्वर्ण की हो या तथाकथित शूद्र की हर बिरादरी की औरत प्राचीनकाल से ही सामान रूप से वस्त्र पहनती आई है। और वह इस मामले में स्वतंत्र रही है कि अपने सामर्थ्यानुसार सज-संवर सकती है।

जबकि दक्षिण भारत में केरल व् तमिलनाडु जैसे राज्यों में ऐसी जगहें व् रियासतें रही हैं जहां दलित औरत क्या पहनेगी यह भी स्वर्ण लोगों द्वारा निर्धारित किया जाता रहा है। त्रावणकोर की महिलाओं द्वारा अपने वक्ष ढकने के अधिकार की 1859 की लड़ाई इस तथ्य को आधिकारिक तौर पर पुख्ता करती है कि उधर की दलित औरतों को वस्त्र-धारण में खापलैंड जैसी स्वतंत्रता नहीं रही। Ref.2

खापोलोजी के खेड़े के गोत में लिंग-समानता का आधार: point soon to be completed

तलाक की स्थिति में “नौ-मण अनाज, दो जोड़ी जूती” परम्परा: point soon to be completed

विवाह के साथ ही औरत का उसके पति की प्रॉपर्टी में बराबर का हकदारी बन जाना: कोई समाज अपनी औरत को प्रॉपर्टी के मामले में कैसे उसके हकों को सुरक्षित रखता है इसका सही पता तब लगता है जब औरत विधवा हो जाती है अथवा तलाकशुदा हो जाती है। भारत में बहुत सारे ऐसे वर्ग व् समाज हैं जहाँ विधवा होने पर उसको पति की संपत्ति से बेदखल कर विधवा आश्रमों में किसी अपराधी अथवा दासी की भांति जीवनयापन को ताउम्र बाध्य रहना पड़ता है व् एक शापित की भांति जीवन बिताना पड़ता है। उड़ीसा-छत्तीसगढ़-मध्यप्रदेश जैसे राज्यों में तो आज भी यह कानूनी निषेध होने के बावजूद भी औरत को पति के मरते ही उसके साथ चिता पे बैठाने की खबरें यदाकदा आती रहती हैं।

जबकि खापलैंड पर सदियों से खाप का विधान रहा है कि औरत के विधवा होने अथवा तलाक होने की सूरत में उसके प्रॉपर्टी हक व् जीवनयापन हक़ नियमों के तहत सुरक्षित रहे हैं। जैसे विधवा होने के बाद पति की प्रॉपर्टी में जो उसका आधा हिस्सा (आधा पति का) था अब पूरा उसका हो जाता है। तलाक होने की सूरत में औरत के अधिकार जानने हेतु ऊपर ‘तलाक’ वाले बिंदु में आपने पढ़ा।

 

Note: Article is under continuous development and author would be adding more points soon.

References:

  1. मतम्मा प्रथा : हो रहा है लड़कियों का यौन शोषण – http://khabar.ndtv.com/video/show/humaari-betiyaan/292376
  2. त्रावणकोर की महिलाओं द्वारा अपने वक्ष ढकने के अधिकार की 1859 की लड़ाई’ – http://www.nidanaheights.net/images/nh-window/nh-thumbsup-72.pdf

Author: P.  K. Malik

Date: 22/09/2015

3 Comments, RSS

  • Bharat Thakran

    says on:
    September 25, 2015 at 12:09 am

    मैं नहीं समझता हमारे समाज में तलाक की प्रथा थी। तलाक मुस्लिम की प्रथा है, हमारे समाज में तो इसका कोई शब्द भी नहीं है। हमारे समाज में जीते जी कोई रिस्ता खत्म नहीं होता, इसीलिए हमारे समाज में कोई विधवा आश्रम , वृद्धा आश्रम, अनाथ आश्रम नहीं बने। हमारा बच्चे कैसे भी हम उनको अपने से अलग नहीं करते , हमारे माँ बाप कैसे भी हों हम उनसे रिश्ते नहीं तोड़ते , उसी तरह पति पत्नी कैसे भी हों, बने न बने , साथ रहे न रहे पति पत्नी ही रहते हैं ।

     
  • Phool Kumar

    says on:
    October 8, 2015 at 4:52 pm

    No, it has been there in our culture ever since the times it is known. This used to be a custom known as “9 Mann Anaaj, 2 Jodi Jooti”, which was especially practiced for the divorced women livelihood compensated by her last husband until she was not remarried to another man. Financial responsbility of children from this couple was that of the husband for lifelong. Such custom in our culture was tagged as “Chhod Dena” and that woman was called “Chhodi Hui”. There are multiple cases in each village on Khapland, two of which I know personally from my village, one daughter of village and another a ‘bahu’ who was remarried to a man from my village.

     
  • Bharat Thakran

    says on:
    October 17, 2015 at 3:44 am

    छोड़ी हुई या छोड़ देना दो शब्द है एक नहीं. Divorce का हिन्दी में कोई शब्द नहीं है क्योकि ये हमारे समाज के परंपरा नहीं है. हमारे समाज में हर प्रथा का एक शब्द है जैसे ब्याह भात छूच्झक दाग काज .हमारे समाज में पति के जीते जी कोई औरत किसी और आदमी से ब्याह नहीं करती . २ जोड़ी २ जूती सिर्फ अपनी पत्नी का खर्चा देता है जो उससे अलग रहती है , अगर बनती नहीं है तो पति पत्नी अलग रह्ते हैं जैसे राम और सीता रहे . १० हज़ार साल के हमारे इतिहास में एक भी ऐसी औरत नहीं मिलेगी जिसने अपने पति के जीते जी किसी और से शादी की हो. न तो हम अपनी बीवी त्यागते थे न बच्चे न माँ बाप न ही बहन . हम ये रिश्ते जीते जी निभाते है . जो भी तलाक हुए है वो पिछले ५० साल मे हुए है ..ज्यादातर पिछले १० साल में हुए है. कैंसर की तरह ये भी विदेशी रोग है जो हर साल ज्यादा तेजी से फ़ैल रहा है . कोई महानता नहीं है अपनी पत्नी अपने बच्चे अपने माप बाप त्यागने में. ये विदेशी बिमारियां हैं इनसे जितना दूर रहे उतना अच्चा .

     

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