चर्चा का सन्दर्भ खाप को लेकर है। प्रश्न यह है कि खाप को संस्था/सभा मानकर चर्चा हो अथवा उसे ग्रामीण भारत के लोगों की जीवनशैली समझा जाए; उसे उनका एक रिवाज, जीवन पद्धति माना जाए और क्यों? एक दशक से ऊपर हो गया है अपनी उधार की शक्ति का गुमान लेकर खाप के विरुद्ध जो दुष्प्रचार अभियान चला रहे हैं वे इसे संस्था/सभा का रूप मान कर बात कर रहे है। जब वे कहते हैं कि खाप विकास विरोधी, राष्ट्र-विरोधी है, इसलिए उसपर सख्त कानून बना कर पाबंदी लगे तो वे इसे एक संस्था मान कर चल रहे होते हैं। इस लहजे में बात करने वाले लोग या तो देहाती जीवन से पूरी तरह अनजान हैं या फिर उसे लांछित करके खत्म करने को लगे हुए चालाक लोग हैं। संस्था और खाप बुनिायदी तौर पर अलग हैं; खाप की प्रकृति अनौपचारिक है तो संस्था औपचारिक नस्ल की देन है। अनौपचारिक रूप से विकसित खाप पद्धति अथवा परविार, बिरादरी जैसी संस्था को कोई एक योजना से बनाता नहीं है विकसित हुई हैं। उनका कोई लिखित विधि-विधान नहीं होता आचरण-व्यवहार से जन्मी परम्परा होती है जिनसे उनका गति-विज्ञान बनता-चलता है। औपचारिक संस्था किसी निर्धारित लक्ष्य को लेकर बनाई होती हैं।

खाप पर चर्चा का आरम्भ पहले प्रचलित गलतफहमियों के जाल को हटाने के साथ होना चाहिये। सवाल पर भ्रम रचना के अनेक कारण बने हैं। एक-एक को परखना होगा। इस चर्चा की आवश्यकता पड़ने का कारण यह बना है कि एक दशक से अधिक हो गया जब खाप के विरुद्ध देश के प्रचार माध्यमों, विशेष कर अखबारों में चले एकतरफा अभियान के कारण अब तक ग्रामीण भारत की जीवनशैली ही शक के घेरे में पड़ गयी है। उसे दकियानूसी बताने वाले उछाल पर हैं और स्वयं आधुनिक बने हुए हैं। आधुनिकता का पैमाना भी अपना।
इस दुष्प्रचार की कसरत में जिस तरह की शब्दावली व वाक्यविन्यास का प्रयोग हुआ है उससे इस अभियान के असली मकसद पर ही शक खड़ा होता है। तब पूरे सवाल को सामने रखना जरूरी बन गया है। भाषा-विज्ञान के जानकार जानते हैं कि वाक्यविन्यास व शब्दावली का प्रयोग खास प्रभाव छोड़ता है, यही भाषा का प्रयोजन है। फिर, प्रचार चलाने वाले कोई बच्चा बुद्धि नहीं हैं कि भाषा का प्रयोग प्रयोजन रहित हो। कुछ ‘ऑनर किलिंग’ की घटनाओं को लेकर विगत एक दशक से अधिक चलते आ रहे इस अभियान पर ध्यान देने से स्पष्ट होता है कि निशाना मात्र इन घटनाओं पर रोष जताना नहीं है, बल्कि इसके पीछे मकसद कहीं अधिक गहरा है। प्रचार का रूप प्रयोजन हेतु संगठित प्रयास का है, इसीलिए इसे अभियान कहना सर्वथा उचित है। खाप के सवाल पर यह चर्चा आरम्भ करने में संवाद की हमारी जरूरत का यह बुनियादी कारण है।

 

लोकतन्त्र और जनतन्त्र के बीच अन्तर को पहचान कर खाप के मौलिक चरित्र अथवा प्रकृति पर यह चर्चा है। दोनो को समानार्थी नहीं लिया जा सकता है। खाप लोकतन्त्र की व्यवस्था है तो वर्तमान शासन प्रणाली अपने को जनतान्त्रिक कहलवाती है। लोकत़न्त्र जनता की अपनी प्रणाली है जबकि जनतन्त्र जनता के नाम पर उन्हें नाथ कर रखने का प्रशासनिक तानाबाना है। दोनों में बुनियादी अन्तर है। संविधान सभा में गांव की स्वशासन व्यवस्था का प्रश्न उठा था कि 6 नवम्बर 1948 को सदन में जिस प्रारूप को स्वीकार करने का प्रस्ताव वह इस देश का तन्त्र नहीं हो सकता है। कुछ सदस्यों ने अन्त तक यह बात रखी। विरोध को शांत करने के वास्ते समयाभाव के बहाने सन् 1949 में संविधान को पास करवाते समय नेताओं ने कहा था कि जो पास हो रहा है वह स्थाई नहीं है। बाद में इसे ठीक कर लिया जायेगा। अलबत्ता इस आश्वासन पर कभी अमल नहीं हुआ। यह आश्वासन ज्यों का त्यों अमल की इंतजार में है। इस बीच संविधान में बहुत बार संशोधन हुए और उसके ढांचे को पलीता लगा कर इसे सेठियागिरी का औजार बनाने पर अधिक ध्यान लगाया गया है।

ब्रिटिश शासन की समाप्ति के बाद भारत देश लोकतान्त्रिक प्रणाली का हकदार बना था। समय के नेताओं ने इस मामले में देश को वस्तुत ठगा है और यहां सरमायेदारी के जनतन्त्र का घिसा पिटा पट्टा पहना दिया और जनता की आकांक्षाओं को पलीता लगा दिया। जो लादा गया वह जनता की चीज नहीं है। इसे बदलने का नैसर्गिक अधिकार वैसा ही है जैसा गुलामी के विरुद्ध आजादी की हुंकार एक दिन लगी थी। कानून के नाम पर अंग्रेज उस दिन इसे दबा नहीं सके थे तो सेठियागिरी के विरुद्ध लोकतन्त्र की चाह उतनी ही महत्व की बात है जिसे मिथकों के सहारे या कानून बना कर दबाना सम्भव नहीं होगा। बराबरी का हक नैसर्गिक है। इसे अधिक समय तक नकारा नहीं जा सकता है।

सच है कि मनुष्य के कुछेक मौलिक हकों को समाप्त नहीं किया जा सकता है। इनमें एक लोगों के मिलने जुलने का हक है। अंग्रेजों ने अपने शासन के विरुद्ध बगावती तेवर को दबाने के लिए दण्ड संहिता में धारा 144 रख कर शासन को अकूत अधिकार रख लिए थे। खाप के विरुद्ध अब इसी संहिता की धारा को कानून का रूप देने का प्रचण्ड प्रयास हो रहा है। देश का वर्तमान संविधान स्वयं लोगों के मिलने-जुलने के नैसर्गिक अधिकार को स्वीकारता है। अंग्रेजों के इंडियन पैनल कोड की धारा को स्वतन्त्र भारत की संसद यदि कानून में बदलना चाहे तो लोगों को उसके विरुद्ध उठ खड़े होने का अधिकार है। सरकार ने लॉ कमीशन की मार्फत अपने इरादे को बता दिया है जिसके निशाने पर फिलहाल एक बिरादरी आई है।

लोकतन्त्र भारत की आदिकालीन लोकायत व्यवस्था का वारिस है। जब अत्यन्त सीमित राजन्य की प्रणाली को बदल कर उसकी जगह एक असीमित राजा अथवा राजसत्ता का चलन यहां स्थापित हो गया उस हालत में भी यहां के जीवन्त गांव समाज ने खाप प्रणाली को अपनी जीवनशैली का अंग बनाए रखा और विकसित किया जिसका आधार पूर्णत सहमति, बराबरी, भाईचारा एवं खुलापन है और जो परिवार, बिरादरी एवं गांव को प्राथमिक सार्वभौम सत्तासम्पन्न इकाई मान कर चलता है। जनतन्त्र पश्चिम में खड़े हुए वाणिज्य-उद्योग के समरूप पनपी राजव्यवस्था है जिसका एक समय प्रथम मन्त्र ‘समता, स्वतन्त्रता, बंधुत्व’ बना जिसे बाद में अल्पसंख्यक शासक जमात ने अपने अनुकूल परिभाषित कर लिया और जिसका आधार व्यक्ति है। इसमें अब न कहीं समता के दर्शन होते हैं, न स्वतन्त्रता बची है और न बंधुत्व का कुछ भाव इसमें कहीं रह गया है। यानी इसका सार समाप्त प्राय है! इसे जनता क्यों स्वीकार करे? वाणिज्य व उद्योग जगत ने यह कारनामा राजसत्ता को इस्तेमाल करके किया है जिसके हाथ में दबा कर रखने की अकूत हथियारबंद ताकत रहती है। खाप सामाजिक प्रतिष्ठा को अपनी ताकत मानता है और शासनतन्त्र हथियार और मिथकों के बल पर अनुसरण चाहता है। दोनों का यह अन्तर मौलिक प्रकृति का है।

खाप प्रणाली में कोई स्थाई चौधरी नहीं रहता। आज है तो गलत है और रोग की निशानी है। खाप बैठने पर उसे संचालित करने के लिए प्रधान या अध्यक्ष तय होता है जो बैठक की समाप्ति पर विलीन हो जाता है। सामान्यत अध्यक्षता के लिए उसे तय किया जाता है जिसकी न्यायप्रियता व निष्पक्षता पर सबको भरोसा हो। जो मान्यनीय नहीं उसे भाव नहीं दिया जाता। किसी की बात का वजन उसके धनी होने से नहीं उसकी छवि, उसकी निष्पक्षता, उसकी ईमानदारी पर होता है। बैठक में भाग लेना व बोलना सबका समान अधिकार है। पूरी चर्चा के बाद पंचों का उकासा करके मामले पर मंथन के बाद अपना प्रस्ताव पेश करना होता है जिसे पंचायत स्वीकार कर ले अथवा नकार कर फिर नये सिरे से बैठक बुला ले। कार्यविधि में हेराफेरी की कहीं जगह नहीं है।

अपनों की गलतियों व अपराध पर ग्रामीण समाज का न्यायबोध हॉ, मॉ, धिक तक ही जाता है। सुधारने का जीवनप्रयन्त प्रयास उसका अपना है। सजा देने की उसकी अलग व्यवस्था बनी थी। ग्रामीण जीवन मामलों को निपटाता है अपराध पर न्याय/फैसले नहीं सुनाता। तरफदारी करने वालों को गांव समाज खाप के लायक नहीं मानता। खाप में ईमानदार सोच के धनी की कद्र है। फिर गलती को सुधारने की उसकी अपनी प्रक्रिया मौजूद है। इसमें मनमर्जी चलाने वालों को छूट नहीं है। खाप ग्रामीण जीवन में स्वशासन की सबसे उन्नत व बढिया प्रक्रिया है। चुनावी राजनीति के दखल से खाप प्रणाली में आ घुसी कमजोरियो का हवाला देकर इसे नकारने का अर्थ बेइमानी है। संवैधानिक शासन व्यवस्था में कमजोरियां के अलावा मौलिक चरित्र सेठियागिरी का है जिसे नकारने का आग्रह अपनी जगह है।

                                                                                          ——    सुरेश देशवाल                            

 

 

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