सम-गोत में विवाह निषेधता: सम-गोत विवाह निषेधता वंशानुगत थैलीसीमिया की बीमारी से बचने के लिए व् “एक गोत के खेड़े” में लिंग-समानता की थ्योरी को कायम व् पोषित रखने के लिए है|

पश्चिमी बंगाल की जलपाईगुड़ी इलाके की टोटो जनजाति जिनमें मामा-चाचा के बच्चों {नजदीकी खून के गोतों (गोत्रों)} की शादी की जाती है, जिसकी वजह से व् कोलकाता के नेताजी सुभाष चंद्र कैंसर रिसर्च सेंटर की शोध के अनुसार इस समुदाय में 56 फीसदी लोग थैलीसीमिया के शिकार हैं। दयानंद मेडिकल कॉलेज, लुधियाना पंजाब के प्रोफेसर सोबती के शोध के अनुसार इन्हीं वजहों के चलते पाकिस्तान पंजाब से आई नश्लों में भी 7.5% लोग थैलिसीमिया की बीमारी से ग्रस्त हैं, जो कि अब बढ़कर 12% तक पहुँच चुकी है| यहां तक कि विश्व के ईसाई समुदाय में भी नजदीकी खून व् सगोतीय विवाह वैज्ञानिक व् सामाजिक दोनों आधार पर मान्य नहीं हैं।

तमाम खापलैंड पर “एक गोत के खेड़े” वाले गाँव-नगरी में सम-गोत विवाह इसलिए वर्जित हैं क्योंकि औलाद बेटे की हो या बेटी की, दोनों के लिए गोत खेड़े का ही चलता है, बहु और दामाद के गोत पीछे छूट जाते हैं अथवा द्वितीय हो जाते हैं। बेटा यानि “मैं”, बहु यानि मेरी पत्नी, इस मामले में हमारी औलाद का प्रथम गोत मेरा यानि मेरे खेड़े का गोत होगा। बेटी यानि मेरी बहन, दामाद यानि मेरे जीजा जी, अगर मेरी बहन ससुराल छोड़ के मायके यानि हमारे (मेरे और मेरी बहन का पैतृक गांव) में आन बसती है तो यहां होने वाली बहन और जीजा की औलादों यानि मेरे भांजे-भांजियों का प्रथम गोत भी मेरी बहन का यानी हमारे खेड़े का गोत होगा, मेरे जीजा का गोत द्वितीय बन जायेगा। और हमारे यहां जितनी भी “धाणी की औलाद, बेटी की औलाद, देहल की औलाद” कहलाती हैं वो सब अपनी माँ का गोत उनका प्रथम गोत के रूप में धारण करते हैं।

और मुझे गर्व है कि ऐसी व्यवस्था कि जिसमें मर्द का ही नहीं अपितु माँ का गोत भी औलाद का प्रथम गोत बन सकता हो और बनता है वो सिर्फ-और-सिर्फ “खापोलोजी” की थ्योरी देती है। कोई द्वेष-ईर्ष्या में कितना ही हमारी थ्योरी से नफरत करे, गफलत करे या तिजारत करे, परन्तु वो इन तथ्यों से मुंह नहीं मोड़ सकता।

अब बात आती है “छज्जे-छज्जे का तथाकथित” प्यार: इसमें तमाम

जवानी के द्वारे, घर-घेर के चुबारे-अँगनारे, वासना भरे हुंकारे! जो इसको समझ के सही दिशा दे जावे, वही सामाजिक कुहारे!!

बस इसी लाइन में निचोड़ है इस बात का। छज्जे-छज्जे का प्यार आकस्मिक होता है, तामसिक होता है। कोई कितने ही तणे तुड़ा ले, कितने ही पींघ चढ़ा ले परन्तु समाज से उसपे स्वीकृति नहीं मिलती क्योंकि विश्व के हर कोने-बिरादरी में जो दो तरह के वैध व् अवैध सामाजिक संबंध होते हैं उनकी अवैध वाली केटेगरी में हमारा समाज इनको गिनता है।

अब छुपी घुन्नी मंशा लिए इनको “वैध प्यार” ठहराने की जिद्द वाले हमें यह बता दें कि क्या जिस समाज-गली-चौराहे से वो आते हैं वहाँ की डिक्शनरी में “अवैध” शब्द नहीं है? मेरे ख्याल से विश्व में ऐसा कोई समाज नहीं जिसमें सिर्फ वैधता ही विराजती हो और उसमें अवैधता के नाम से कुछ ना हो? अगर ऐसा हो तो फिर विश्व से कोर्ट-कचहरी-पुलिस सब खत्म हो जाता या कम से कम उनके समाजों में यह चीजें ना मिलती।

दूसरी बात अवैध संबंध विवाह से पहले और विवाहोपरांत दोनों तरह के पाये जाते हैं, और हमारे समाज में उनमें से एक अवैध संबंध की प्रकार है “छज्जे-छज्जे का तथाकथित प्यार”। छज्जे-छज्जे के प्यार की सबसे बड़ी हास्यास्पद स्थिति यह होती है कि जिनसे कभी छज्जे-छज्जे खेले थे अक्सर वो ही उनके बच्चों से आपको, “बेटू मामा जी को नमस्ते करो!” कहलवाती मिलती हैं। और ऐसे में सिर्फ उनकी ही आँखें गर्व से आशीर्वाद देती हैं जिन्होनें छज्जे नहीं अपितु अच्छे रिश्ते रखे हों। अन्यथा आँखें चुरा के निकल जाना पड़ता है|

आन-बान-शान: अत: वो नादाँ लोग समझें जो “छज्जे-छज्जे के तथाकथित प्यारा का डरावा दे ऐसा माहौल खड़ा कर देते हैं कि जैसे दुनियां खत्म होने को आई, वो इसकी परवाह ना करें। क्योंकि समाज से प्यार मरेगा नहीं और वासना घटेगी नहीं। प्यार हारेगा नहीं, वासना जीतेगी नहीं।

किस्से और रांझे तो गाँव-गोत छोड़ प्यार करने वाले हीर-रांझे के ही गाये जायेंगे, छज्जे-छज्जे के प्यार के तहत दी गई व्यर्थ व् कोरी भावनाओं वाली कुर्बानियों के नहीं। जान-जान में फर्क होता है एक जान हीर-रांझे ने दी तो आजतक अमर और एक कितने ही छज्जे-छज्जे वालों ने दी, एक का भी जिक्र किसी गली-चौराहे-महफ़िल नहीं होता, सिवाय उनकी तेरहवीं तक होने वाली शोकसभा के। इसलिए हे छज्जे-छज्जे की पींघों पे झूलने वालो, इन पींघों को गाँव-गुहांड-गोत से बाहर जा और लम्बी बनाओ क्योंकि सासु के नाक तोड़ के लाने हैं तो पींघ लम्बी ही चाहिए होती है। छोटी पींघ पे झूलोगे तो सासु का नाक क्या अपना भी नहीं तोड़ पाओगे।और अगर जाटलैंड और खापलैंड पे बसते हो तो इतनी लम्बी तो जरूर रखो कि पींघ गोत से तो जरूर-से-जरूर बाहर जाती हो, गाँव-गुहांड की निर्भर है कि आपका गाँव के खेड़े का गोत एक है या अनेक।

“खेड़े का गोत”: खापोलोजी में जब भी कोई नया गाँव-नगरी बसाई जाती है तो उस गाँव की नींव का पत्थर यानी “दादा खेड़ा” स्थापित करते वक्त जिन-जिन भी जातियों के जिन-जिन गोत के प्रथम लोग खड़े होते हैं वह उन-उन जातियों का “खेड़े का गोत” कहलाता है। अगर एक ही जाति के दो से ज्यादा गोत के लोग हों तो वो सारे गोत उस जाति के लिए उस गाँव के खेड़े के गोत कहलाते हैं। सिरसा-गंगानगर-हनुमानगढ़ की तरफ अधिकतर गाँव ऐसे हैं जिनमें “एक से ज्यादा खेड़े” के गोत हैं जबकि बाकि की खापलैंड पर अधिकतर गाँवों का एक खेड़े का गोत पाया जाता है।

 

Leave a Comment..